INSPIRED BY A PHOTO ESSAY BY JAVED IQBAL,
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घर - उजड़ा,
कटा-फटा
दर्द का अंधियारा
किलकारियों से परे
एक अनजान सा घर
...
ना तुम्हारा- न मेरा
पर है ये वो किसी का
संजोय जाने कौन से मुर्दे
रखे है जाने कितने झरोखों में
न कोइ पुलकित मन
ना ही श्वास का ही ठिकाना
पर है वो - घर
घर, जो है उसका पूरा संसार
पलक झपकाते ही
मानो गायब सी हो गयी
सीमट सी गयी
ये संसार की चार-दिवारी
बस इतनी सी ही रह गयी
घर की मुंडेरी
घर - उजड़ा,
कटा-फटा
दर्द का अंधियारा