Wednesday, December 12, 2012

पेंसिल।

पेंसिल।


पेंसिल, वो इक स्याह सा टुकड़ा
अब कहाँ है, और उसे कैसे है खोया।  

क्यों न हो उस पेंसिल की तलाश 
जिसे पकड़ना, जिसे पकड़ना,
कितनी ही आत्मीयता से,
पापा ने था सिखाया।   

वो पहली बार पेंसिल से बस चीस रहे थे
रंगरेजों की तरह, कागज़ में 
वो काला सा रंग। 
वो काला सा रंग बस भरे जा रहे थे 

आज यूं ही याद सा आ गया मुझे 
वो पेंसिल की नोक। 
किस तरह तराशते रहते थे,  
पेंसिल की नोक। 
...
बस समष्टि की गोष्ठी 
इसी गोष्ठी ने कहा 
एक पेंसिल की धारदार नोक पर 

विवेचन कर, अन्तः में झाँक कर,
अपनी नयी संरचना कर.

उदहारण सा दे, अपनी समष्टि का,
अपनी ही पेंसिल की लकीर से, 
अभिव्यक्ति का 
अपनी श्रृष्टि का, अपनी दृष्टि का 
अपने चक्षु के समावेश का

कुटुंब में, विश्व में।
ऋणों के उद्दभव, और उसके उद्गम का सार 
इसी पेंसिल की नोक पर 
इसे यहीं सृजित कर 
अभिव्यक्ति की पराकाष्ठा इसी धरती पर। 
बस ढूँढ ले पेंसिल को 
बस ढूंढ ले उसकी धार-धार नोक को 
बस ढूंढो उस पेंसिल को 
तराशे हुए, धारदार नोक को

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